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सत्ता की कूटनीतियों से बच पाएगी कलम की स्वतंत्रता ?

देश में फिलहाल पत्रकारों के साथ कुछ ज्यादा ही बदसलूकी देखने को सामने आ रही है! दरअसल हाल ही में जिहाद के बारे में सुधीर चौधरी ने कार्यक्रम चलाया था! जिस कार्यक्रम में सुधीर चौधरी ने कई प्रकार से इस बारे में समझाया और बताया कि किस तरह से जम्मू कश्मीर में जिहाद चल रहा है! इसी के चलते ज़ी न्यूज के पत्रकार सुधीर चौधरी पर एफआईआर दर्ज किया गया! सुधीर चौधरी अपना एक कार्यक्रम डीएनए में तमाम चीजों को एनालाइज करते हैं तो उसी कार्यक्रम में उन्होंने जिहाद के बारे में बताया! जिसके चलते हैं उन पर आरोप लगाया गया कि इस कार्यक्रम में उन्होंने एक विशेष धार्मिक कौम को अपमानित किया है! ऐसा ही कुछ देश के एक पत्रकार अर्णव गोस्वामी के साथ भी देखने को मिला! इन लोगों का मानना है कि अर्णब गोस्वामी ने पालघर मामले में सोनिया गांधी से सवाल पूछ लिया था जिसके पश्चात ही वह कांग्रेस की नजर में सबसे बड़े अपराधी हो गए हैं! अर्णव गोस्वामी के खिलाफ 12 से अधिक एफआईआर कांग्रेस नेताओं के द्वारा दर्ज कराई गई! और जिसके बाद भारत के जाने-माने पत्रकार से 12 घंटे तक पूछताछ की गई! लेकिन शायद देश की जनता को यह पसंद नहीं आया और वे दोनों पत्रकार के जबरदस्त समर्थन में उतर आए! दरअसल देश के बड़े-बड़े राजनेताओं इतना समर्थन नहीं देखने को मिला जितना सोशल मीडिया पर इन दोनों पत्रकारों के लिए देखने को मिल रहा है! इनके समर्थन में ट्विटर पर काफी हैस्टैग और ट्रेंड पर लोगों ने काफी ट्वीट रिट्वीट किए!


पराधीन भारत में अंग्रेजों की नाक में दम करने वाली हिंदी पत्रकारिता स्वाधीनता के बाद से बहुत बिगड़ी नहीं थी। नए भारत के निर्माण के समय पहरेदार की तरह हिंदी पत्रकारिता शासन और सत्ता को आगाह कर रही थी। सहिष्णुता का माहौल था। सत्ता और शासन अखबारों की खबरों को गंभीरता से लेते थे और एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव था।सीमित संसाधनों में अखबारों का प्रकाशन सीमित संख्या में था और पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले लोग आम लोग नहीं हुआ करते थे। एक किस्म की दिव्य शक्ति उनमें थी। वे सामाजिक सरोकार से संबद्ध थे। जब समाज का पत्रकारिता से आहिस्ता आहिस्ता भरोसा उठने लगा। आज की हालत में तो पत्रकारिता के जो हाल हैं, सो हैं। अब यह कहना मुश्किल है कि कौन सा अखबार, किस सत्ता और शासन का पैरोकार बन गया है या बन जाएगा। भारतीय पत्रकारिता अभी बहुत नाजुक दौर में है. ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि अब भारत का मीडिया सुधारों से परे जा चुका है और यह कभी अपनी पेशेवर ईमानदारी वापस नहीं पा सकेगा.हो सकता है उनके पास ऐसा कहने की वजह हों. लेकिन हिंदुस्तान में अब भी ऐसे अखबार, टीवी चैनल और वेबसाइट हैं, जो ये लड़ाई लड़ना चाहते हैं. साथ ही बहुत से पत्रकार- जिनमें कई युवा भी हैं, बदलाव लाने के लिए काम कर रहे हैं.इसी के साथ देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे स्वतंत्र पत्रकारों की संख्या बढ़ रही है, जो जनता के हित के लिए काम करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि बड़े मीडिया संस्थानों की चुप्पी के बीच उनकी आवाज जगह बना सके.अब भी हजारों कहानियां बाकी हैं. लॉकडाउन की चुनौतियों के बीच, जिन लोगों को मुख्यधारा का हिस्सा होने के बावजूद शायद ही कभी मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है, वे हमारी चेतना का हिस्सा बन चुके हैं.वो बहादुर पत्रकार, जो अपने पेशे के उसूलों के साथ खड़े होते हैं, उन्हें अक्सर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है. कुछ की हत्या कर दी गई, कइयों की नौकरी गई और कुछ के खिलाफ अदालतों में मामले चल रहे हैं.इस बात की वाजिब वजहें हैं कि विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के 180 देशों की सूची में भारत 142वें स्थान पर है. फिर भी सूचना और प्रसारण मंत्री की इस बारे में प्रतिक्रिया यह है कि उनकी सरकार इन सर्वेक्षणों का भंडाफोड़ करेगी.


हिंदी पत्रकारिता को स्वाहा करने में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थानों की भूमिका भी बड़ी रही है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी, पत्रकारिता शिक्षण संस्थाओं के पक्षधर थे। किन्तु वर्तमान में भोपाल से दिल्ली तक संचालित पत्रकारिता संस्थाएं केवल किताबी ज्ञान तक सिमट कर रह गई हैं। व्यावहारिक ज्ञान और संवाद कला तो गुमनामी में है। ज्यादतर पत्रकारिता के शिक्षकों के पास व्यावहारिक अनुभव नहीं है। नेट परीक्षा पास करो, पीएचडी करो और शिक्षक बन जाओ। निश्चित रूप से पत्रकारिता की शिक्षा भी प्रोफेशनल्स कोर्स है और इस लिहाज से यह उत्कृटता मांगती है लेकिन उत्कृष्टता के स्थान पर पत्रकारिता शिक्षा प्रयोगशाला बनकर रह गई है। इस प्रयोगशाला से पत्रकार नहीं, मीडियाकर्मी निकलते हैं और एक कर्मचारी से आप क्या उम्मीद रखेंगे? कल्पना कीजिए कि पंडित जुगलकिशोर शुक्ल, राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, तिलक, पराडक़रजी जैसे विद्वतजन मीडियाकर्मी होते तो क्या हम शुचित पत्रकारिता को समझ पाते? शायद नहीं लेकिन मेरा मानना है कि समय अभी गुजरा नहीं है। पत्रकारिता के पुरोधा और पुरखों को जागना होगा और पत्रकारिता की ऐसी नई पौध को तैयार करना होगा जो राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, मायाराम सुरजन, लाभचंद्र छजलानी के मार्ग पर चलने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। 


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