भारत में पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है। अकबर इलाहाबादी ने इसकी ताकत एवं महत्व को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है कि ‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल तब अखबार निकालो। उन्होंने इन पंक्तियों के जरिए प्रेस को तोप और तलवार से भी शक्तिशाली बता कर इनके इस्तेमाल की बात कह गए हैं।
कलम का सिपाही कहे या फिर कलम की धार से सत्ता को हिलाने का दम रखने वाला योद्धा या लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का रक्षक सीधे शब्दों में कहा जाए तो पत्रकार। दुनिया के किसी भी देश के उदय और उसकी प्रगति में पत्रकारों की अहम भूमिका रही है। भारत की आजादी के वक्त भी पत्रकारों ने महत्वपूर्ण किरदार अदा किया है, जिसे आज भी भुलाया नहीं जा सकता। साथ ही समाज में जाति-धर्म और संप्रदाय की गहरी खाई को भी कई बार पत्रकारों ने भरने का काम किया है। हालांकि समाज में पत्रकारों की स्वतंत्रता को कैद करने वालों की भी कमी नहीं है। जिस कारण प्रेस की स्वतंत्रता की मांग उठी और प्रत्येक वर्ष 3 मई को अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाने लगा। जिसका मकसद था दुनियाभर में स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करना और उसकी रक्षा करना। प्रेस किसी भी समाज का आइना होता है। प्रेस की आजादी से यह बात साबित होती है कि उस देश में अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक जरूरत है। दुनिया में प्रेस स्वतंत्र और सुरक्षित रहेगी तभी हम स्वच्छ और बेहतर समाज की कल्पना कर सकते हैं। इसी सिद्धांत को आत्मसात करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने लोकतात्रिक देशों में चौथे खंभे रूप में जाने जाने वाले प्रेस की स्वतंत्रता को तरजीह दी। वास्तव में जिन लोगों की दूसरों के कामकाज की समीक्षा, टिप्पणी और लोगों तक सूचना पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है उनकी जवाबदेही कहीं और ज्यादा बढ़ जाती है। मीडिया को इसी श्रेणी में रखा जाता है। पत्रकार भी इसी समाज का हिस्सा हैं जहां भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसी बुराइयां हैं, उनसे पत्रकारों के बचे रहने की उम्मीद करना बेमानी है। पत्रकारिता की गरिमा बनाए बनाए रखना पत्रकारों के ही हाथ में है। इसलिए पूरी कोशिश होनी चाहिए कि यदि प्रेस की स्वतंत्रता की बात होती है तो उसके साथ-साथ पत्रकारों के नैतिकता की भी बात हो। जहां कलम के सिपाही जान जोखिम में डालकर लगातार अपना काम कर रहे हैं। हमारे देश में पंजाब एवं कश्मीर में इसी तरह पत्रकारों को अपना बलिदान देना पड़ा है। हिंसा और आतंकवाद से उबरने का रास्ता न तो हिंसक तरीके हैं और न जेल की सलाखें। विकृत मानसिक चरित्र के लिए ये सारे उपादान व्यर्थ हैं। उन्हें रास्ते पर लाकर मनुष्यता की धर्मरेखा को समझाने के लिए एक लक्ष्मण रेखा जरूर खींचनी होगी। यह कार्य प्रेस एवं पत्रकार ही कर सकते हैं। पुरानी कहावत गलत नहीं है कि तलवार से कलम में अधिक शक्ति होती है।इसी कलम की धार ने 70 के दशक में अमेरिका के मशहूर वाटरगेट कांड का फंडाफोड़ कर राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को व्हाइट हाउस से बाहर का रास्ता दिखाया था। इस तरह मशहूर पत्रकार एन. राम और चित्रा सुब्रमण्यम की पत्रकारिता ने जब बोफोर्स तोपों की आड़ में हुए घोटाले को जनता के समक्ष पेश किया तो भारतीय राजनीति में हंगामा मच गया। इसीलिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा भी है कि ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस एक आजाद एवं जीवंत प्रेस के प्रति हमारे अविश्वसनीय समर्थन को दोहराने का दिन है जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। आजकल के दौर में सोशल मीडिया संपर्क के एक सक्रिय माध्यम के रूप में उभरी है और इससे प्रेस की आजादी को और बल मिला है।’
यह दिवस पत्रकारों के लिये भी आत्म-मंथन का दिवस है। आज हमारा मीडिया अपना दायित्व ठीक तरीके से नहीं निभा रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टी आर पी बढ़ाने के लिये खबरों में तड़का लगाने से परहेज नहीं करता। प्रेस के जिन माध्यमों से नैतिकता मुखर हो रही है, वे बहुत सीमित हैं या दायित्वविमुख हैं। प्रभावक्षीण तथा चेतना पैदा करने में काफी असमर्थ हैं। हम देख रहे हैं कि माध्यमों की अभिव्यक्ति एवं भाषा में एक हल्कापन आया है। ऐसे में एक गम्भीर पत्रकारिता के साथ आगे आना ही एक साहस है। हम यह भी महसूस कर रहे हैं कि प्रकाशन एवं प्रसारण के क्षेत्र में ताकतवर संस्थान युग की नैतिक विचारधारा को किस तरह धूमिल कर रहे हैं। जबकि समय यह मानता है कि जब-जब नैतिक क्षरण हो, तब-तब प्रेस, पत्रकारिता एवं अभिव्यक्ति का माध्यम और ज्यादा ताकतवर व ईमानदार हो। क्योंकि प्रेस जहाँ एक तरफ जनता का आइना होता है, वहीं दूसरी ओर प्रेस जनता को गुमराह करने में भी सक्षम होता है इसीलिए प्रेस पर नियंत्रण रखने के लिए हर देश में अपने कुछ नियम और संगठन होते हैं, जो प्रेस को एक दायरे में रहकर काम करते रहने की याद दिलाते हैं। प्रेस की आजादी को छीनना भी देश की आजादी को छीनने की तरह ही होता है। चीन, जापान, जर्मनी, पाकिस्तान जैसे देशों में प्रेस को पूर्णतः आजादी नहीं है। यहां की प्रेस पर सरकार का सीधा नियंत्रण है। इस लिहाज से हमारा भारत उनसे ठीक है। आज मीडिया के किसी भी अंग की बात कर लीजिये, हर जगह दाव-पेंच का असर है। खबर से ज्यादा आज खबर देने वाले का महत्त्व हो चला है। लेख से ज्यादा लेख लिखने वाले का महत्त्व हो गया है। पक्षपात होना मीडिया में भी कोई बड़ी बात नहीं है, जो लोग मीडिया से जुड़ते हैं, अधिकांश का उद्देश्य जन जागरूकता फैलाना न होकर अपनी धाक जमाना ही अधिक होता हैं। कुछ लोग खुद को स्थापित करने लिए भी मीडिया का रास्ता चुनते हैं। कुछ लोग चंद पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। आज यह समझना भी जरूरी है कि क्यों मीडिया की आजादी बहुत कमजोर है? यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से क्यों बाहर है? हालांकि मीडिया की सच्ची आजादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है।
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